❤❤श्रीवृन्दावनबिहारी ❤❤

 
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देखौ माई सुंदरता कौ सागर । बुधि-बिबेक बल पार न पावत, मगन होत मन नागर ॥ तनु अति स्याम अगाध अंबु-निधि, कटि पट पीत तरंग । चितवत चलत अधिक रुचि उपजति, भँवर परति सब अंग ॥ नैन-मीन, मकराकृत कुंडल, भुज सरि सुभग भुजंग । मुक्ता-माला मिलीं मानौ द्वै सुरसरि एकै संग ॥ कनक खचित मनिमय आभूषण, मुख, भ्रम-कन सुख देत । जनु जल-निधि मथि प्रगट कियौ ससि, श्री अरू सुधा समेत ॥ देखि सरूप सकल गोपी जन, रहीं बिचारि-बिचारि । तदपि सूर तरि सकीं न सोभा, रहीं प्रेम पचि हारि ॥1॥ स्याम भुजनि की सुंदरताई । चंदन खौरि अनुपम राजति, सो छवि कही न जाई ॥ बड़े बिसाल जानु लौं परसत,इक उपमा मन आई । मनौ भुजंग गगन तैं उतरत, अधमुख रह्यौ झुलाई ॥ रत्न-जटित पहुँची कर राजति, अँगुरी सुंदर भारी । सूर मनौ फनि-सिर मनि सोभित, फन-फन की छबि न्यारी ॥2॥ स्याम-अँग जुवती निखि भुलानीं । कोउ निरखति कुंडल की आभा, इतनेहिं माँझ बिकानी ॥ ललित कपोल निरखि कोउ अटकी, सिथिल भई ज्यौं पानी । देह-गेह की सुधि नहिं काहूँ, हरषित कोउ पछितानी ॥ कोउ निरखति रही ललित नासिका, यह काहू नहिं जानी । कोउ निरखति अधरनि की सोभा, फुरति नहीं मुख बानी ॥ कोउ चकित भई दसन-चमक पर, चकचौंधी अकुलानी । कोउ निरखति दुति चिबुक चारू की, सूर तरुनि बिततानी ॥3॥ मैं बलि जाउँ स्याम-मुख-छबि पर । बलि-बलि जाउँ कुटिल कच बिथुरे, बलि भृकुटी लिलाट पर ॥ बलि-बलि जाउँ चारु अवलोकनि, बलि-बलि कुंडल-रबि की । बलि-बलि जाउँ नासिका सुललित, बलिहारी वा छबि की ॥ बलि-बलि जाउँ अरुन अधरनि की, बिद्रुम- बिंब लजावन । मैं बलि जाउँ दसन चमकनि की, बारौं तड़ितनि सावन ॥ मैं बलि जाउँ ललित ठोड़ी पर, बलि मोतिनि की माल । सुर निरखि तन-मन बलिहारौं, बलि बलि जसुमति-लाल ॥ 4॥ नटवर-बेष धरे ब्रज आवत । मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, कुटिल अलक मुख पर छबि पावत ॥ भृकुटी बिकट नैन अति चंचल, इहिं छबि पर उपमा इक धावत । धनुष देखि खंजन बिबि डरपत, उड़ि न सकत उड़िबै अकुलावत ॥ अधर अनूप मुरलि-सूर पूरत, गौरी राग अलापि बजावत । सुरभी-बृंद गोप-बालक-संग, गावत अति आनंद बढ़ावत ॥ कनक-मेखला कटि पीतांबर, निर्तत मंद- मंद सुर गावत । सूर स्याम-प्रति-अंग-माधुरी, निरखत ब्रज-जन कैं मन भावत ॥5॥ आवत मोहन धेनु चराए । मोर मुकुट सिर, उर बनमाला, हाथ लकुट गोरज लपटाए ॥ कटि कछनि किंकिन-धुनि बाजति, चरन चलत नुपूर रव लाए । ग्वाल-मंडली मध्य स्यामधन, पीत बसन दामिनिहिं लजाए ॥ गोप सखा आवत गुन गावत, मध्य स्याम हलधर छबि छाए । सूरदास प्रभु असुर सँहारे, ब्रज आवत मन हरष बढ़ाए ॥6॥ उपमा हरि-तनु देखि लजानी । कोऊ जल मैं, कोउ बननि रहीं दुरि, कोउ कोउ गगन समानी ॥ मुख निरखत ससि गयौ अंबर कौं, तड़ित दसन-छबि हेरि । मीन कमल, कह चरन, नयन डर जल मैं कियौ बसेरि ॥ भुजा देखि अहिराज लजाने, बिबरनि पैठे धाइ । कटि निरखत केहरि डर मान्यौ, बन-बन रहै दुराइ ॥ गारी देहिं कबिनि कैं बरनत, श्री-अँग पटतर देत । सूरदास हमकौ सरमावत, नाउँ हमारौ लेत ॥7॥ स्याम सुख-रासि, रस-रासि भारी । रूप की रासि, गुन-रासि, जोबन-रासि, थकित भईं निरखि नव तरुन नारी ॥ सील की रासि, जस-रासि, आनँद रासि , नील-जलद छबि बरनकारी । दया की रासि, विद्या-रासि, बल-रासि, निर्दयाराति दनुकुल-प्रहारी ॥ चतुराई-रासि, छल-रासि, कल-रासि , हरि भजै जिहिं हेत तिहिं देन हारी । सूर-प्रभु स्याम सुख-धाम पूरन काम, बसन कटि- पीत मुख मुरलीधारी ॥8॥ स्याम-कमल-पद-नख की सोभा । जे नख-चंद्र इंद्र सर परसे, सिव बिरंचि मन लोभा ॥ जे नख-चंद्र सनक मुनि ध्यावत, नहिं पावत भरमाहीं । ते नख-चंद्र प्रगट ब्रज-जुवती, निरखि निरखि हरषाहीं ॥ जै नख-चंद्र फनिंद-हृदय तैं, एकौ निमिष न टारत । जे नख-चंद्र महा मुनि नारद, पलक न कहूँ बिसारत ॥ जे नख चंद्र-भजन खल नासत,रमा हृदय जे परसति । सूर स्याम-नख-चंद्र बिमल छबि, गोपीजन मिलि दरसति ॥9॥ स्याम-हृदय जल-सुत की माला, अतिहिं अनूपम छाजै (री) । मनहुँ बलाकपाँति नवघन पर, यह उपमा कछु भ्राजे (री) ॥ पीत, हरित, सित, अरुन मालबन, राजति हृदय बिसाल (री)। मानहुँ इंद्रधनुष नभमंडल, प्रगट भयौ तिहिं काल (री) ॥ भृगु पद-चिन्ह उरस्थल प्रगटे, कौस्तभ मनि ढिग दरसत (री) । बैठे मानौ षट विधु एक सँग, अर्द्ध निसा मिलि हरषत (री) ॥ भुजा बिलास स्याम सुंदर की, चंदन खीरि चढ़ाये (री) । सूर सुभग अँग-अँग की सोभा, ब्रज- ललनौं ललचाए (री) ॥10॥ मुख पर चंद डारौं वारि । कुटिल कच पर भौंर वारौं, पर धनु वारि ॥ भाल-केसर-तिलक छबि पर, मदन-सर सत वारि । मनु चली बहि-सुधा-धारा, निरखि मन द्यौं वारि ॥ नैन सुरसति-जमुन-गंगा, उपम डारौं वारि । झलक ललित कपोल छबि पर, मुकुट सत-सत वारि ॥ नासिका पर कीर वारौं, अधर बिद्रुम वारि । दसन पर कन-ब्रज वारौं, बीज-दाड़िम वारि ॥ चिबुक पर चित-बित्त धारौं, प्रान डारौं बारि । सूर हरि की अंग-सोभा, को सकै निरवारि ॥ 11॥
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