❤श्री राधेश्याम❤

 
❤श्री राधेश्याम❤
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हरि चरणन की चेरी पलक न लागै मेरी स्याम बिना। हरि बिनू मथुरा ऐसी लागै, शशि बिन रैन अंधेरी। पात पात वृन्दावन ढूंढ्यो, कुंज कुंज ब्रज केरी। ऊंचे खडे मथुरा नगरी, तले बहै जमना गहरी। मीरा रे प्रभु गिरधरनागर, हरि चरणन की चेरी। मीराबाई कहती हैं कि - हे मेरे श्याम! तुझसे ऐसी लगन लगी है कि तेरे वियोग में मेरी पलकें एक पल को भी नहीं झपकतीं। हरि के बिना मुझे मथुरा नगरी ऐसी लगती है जैसे चंद्र के बिना रात को अंधेरा छा गया हो। मैंने वृंदावन जाकर पत्ते-पत्ते में उसे ढूंढा और ब्रज जाकर कुंज-कुंज में झांक लिया, मगर वह मुझे कहीं भी नहीं मिला। मथुरा नगरी ऊंचाई पर खडी है और उसके नीचे गहरी यमुना नदी बह रही है। हे मीरा के प्रभु गिरधरनागर! मैं तो हरि के चरणों की दासी हूँ, अत: मुझे दर्शन देकर कृतार्थ करो।❤मुरली कर लकुट लेऊँ गोहनें गुपाल फिरूं, ऐसी आवत मन में। अवलोकन बारिज बदन, बिबस भई तन में। मुरली कर लकुट लेऊं, पीत बसन धारूं। काछी गोप भेष मुकट, गोधन संग चारूं। हम भई गुलफाम लता, बृन्दावन रैना। पशु पंछी मरकट मुनी, श्रवन सुनत बैनां। गुरुजन कठिन कानि कासौं री कहिए। मीरा प्रभु गिरधर मिलि ऐसे ही रहिए॥ मीरा कहती है कि मेरे मन में ऐसा विचार आता है कि सदैव गोपाल के साथ-साथ घूमूं -फिरूं। उसका कमल जैसा मुखडा देख करके मेरा तन विवश हो जाता है। जी करता है कि हाथ में मुरली व छडी लूं और पीले वस्त्र धारण करूं। फिर गोप का वेश बनाकर और सिर पर मुकुट धरकर गोधन (गउओं) के साथ विचरती फिरूं। इस कल्पना से मीरा इतना विमुग्ध होती है कि उसे प्रतीत होता है, वह तो वृंदावन की धूल बन गई है और यहां के पशु, पक्षी, वानर व मुनियों की वाणी अपने कानों में सुन रही है। गुरुजनों की बडी कठोर मर्यादाएं हैं, मैं तो अपने मन की बात उनको बता नहीं सकती। मीरा कहती है कि हे प्रभु, हे मेरे गिरधर! मेरी जैसी कल्पना है, उसी प्रकार मुझसे मिलकर रहिए।
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